महाशिवरात्रि में भगवान शिव की विधिविधान से पूजा की जाती है। इस पर्व को लेकर मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव और मां पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। इस दिन भगवान शिव-पार्वती की पूजा करने से दांपत्य जीवन सुखमय रहता है। इस मौके पर हम आपको शिव-पार्वती के विवाह की संपूर्ण व्रत कथा के बारे में बताने जा रहे हैं। धार्मिक मान्यता है कि महाशिवरात्रि के व्रत में इसको पढ़ने से भगवान शिव-मां पार्वती का आशीर्वाद मिलता है। इससे वैवाहिक जीवन में खुशहाली बढ़ती है।
शिव पार्वती विवाह की कथा
ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद! पर्वतराज हिमाचल ने अपनी पत्नी मेनासहित कन्यादान का कार्य शुरू किया था। इस समय वस्त्राभूषणों से विभूषित महाभाग मेना सोने का कलश लिए पति हिमवान के दाहिने भाग में बैठी। इसके बाद पुरोहितसहित हर्ष से भरे हुए शैलराज ने पाद्य आदि के द्वारा वर का पूजन करने चंदन, वस्त्र और आभूषणों द्वारा उनका वरण किया। इसके बाद हिमाचल ने ब्राह्मणों से कहा कि आप लोग तिथि आदि के कीर्तनपूर्वक कन्यादान के संपल्प वाक्य बोलें। उसका अवसर आ गया है।
वह 'तथास्तु' कहकर बड़ी प्रसन्नता के साथ तिथि आदि का कीर्तन करने लगे। इसके बाद हिमाचल ने प्रसन्नतापूर्वक हंसकर उनसे कहा कि शम्भो आप अपने गोत्र का परिचय दें। प्रवर, नाम, कुल, वेद और शाखा का प्रतिपादन करें और अब अधिक समय न बिताएं। हिमाचल की बात सुनकर भगवान शिव शोचनीय अवस्था में पड़ गए। भगवान शिव के मुख से कोई उत्तर नहीं निकलता देखकर नारद हंसने लगे। नारद ने कहा पर्वतराज तुम मूढ़ता के वशीभूत होकर कुछ नहीं जानते। महेश्वर से कहा कहना चाहिए और क्या नहीं, तुमको इस बारे में नहीं पता है। नारद बोले शंभू से उनका गोत्र पूछा है और तुम्हारी यह बात बेहद उपहासजनक है। क्योंकि इनके गोत्र, कुल और नाम को तो ब्रह्मा, विष्णु आदि भी नहीं जानते हैं।
नारद ने कहा शैलराज भगवान शंकर को कोई रूप नहीं है, यह प्रकृति से परे निर्गुण परब्रह्म परमात्मा हैं। वह निराकार, निर्विकार और मायाधीश हैं। भगवान शिव अपने भक्तों के प्रति दयालु हैं। यह गोत्रहीन होकर भी उत्तम गोत्र वाले हैं। कुलहीन होकर भी उच्च कुलीन हैं और देवी पार्वती की तपस्या से आज यह तुम्हारे जमाता बने हैं। नारद जी ने कहा कि मेरी बात सुनकर अपनी पुत्री का हाथ भगवान शिव के हाथ में दे दो। मन ही मन सर्वेश्वर शंकर जी द्वारा प्रेरित हो, मैंने आज अभी वीणा बजाना शुरूकर दिया था।
ब्रह्माजी कहते हैं कि मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराज हिमालय को संतोष प्राप्त हुआ। महेश्वर की गंभीरता जानकर सभी विद्वान आश्चर्यचकित हो बड़ी प्रसन्नता से बोले, इस विशाल जगत का जिनकी आज्ञा से प्राकट्य हुआ, जो आत्मबोधस्वरूप, परात्परतर, स्वतंत्र लीला करने वाले और उत्तम भाव से जानने योग्य हैं। उन त्रिलोकनाथ भगवान शंकर का आज हम सभी लोगों ने भली भांति दर्शन किया है।
इसके बाद हिमालय ने अपनी कन्या का भगवान शिव को दान कर दिया। कन्यादान करते समय हिमालय बोले- हे परमेश्वर मैं अपनी कन्या आपको देता हूं। आप इसको अपनी पत्नी रूप में ग्रहण करें और इस कन्यादान से संतुष्ट हों। मंत्रोच्चारण करते हुए हिमालय ने अपनी पुत्री को महान देवता रूद्र के हाथ में दे दिया। इस तरह शिवा का हाथ शिव के हाथ में रखकर शैलराज मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए वेदमन्त्र के उच्चारणपूर्वक महादेवजी ने प्रसत्र हो गिरिजा के करकमल को शीघ्र अपने हाथ में ले लिया। भगवान शंकर ने पृथ्वी का स्पर्श करके 'कोऽदात् इत्यादि रूप से काम संबंधी मंत्र का पाठ किया।
पृथ्वी और अंतरिक्ष में जय-जयकार गूंजने लगा। सब लोग हर्ष से भरकर साधुवाद देने और नमस्कार करने लगे। फिर गंधर्वगण प्रेमपूर्वक गाने लगे और अप्सराएं नृत्य करने लगे। विष्णु, इन्द्र, देवगण तथा संपूर्ण मुनि हर्ष से भर गए और सबके मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठे। हिमालय राज ने दहेज में अनेक प्रकार के द्रव्य, रत्न, पात्र, एक लाख सजे-सजाए घोड़े, एक लाख सुसजित गाय, करोड़ हाथी और उतने ही सुवर्णजटित रथ आदि वस्तुएं दीं। इस तरह से भगवान शिव को विधिपूर्वक अपनी पुत्री पार्वती का दान करके हिमालय कृतार्थ हो गए। फिर शैलराज ने दोनों हाथ जोड़ प्रसन्नतापूर्वक उत्तम वाणी में भगवान शिव की स्तुति की।
शिव का जनवासे में लौटना
ब्रह्माजी कहते हैं कि नारद मेरी आज्ञा पाकर महेश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा अग्नि की स्थापना करवाई। फिर पार्वती को अपने आगे बैठाकर यहां ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद के मंत्रों द्वारा अग्नि में आहुतियां दी। फिर काली और शिव दोनों ने आहुति देकर लोकाचार का आश्रय लिया और प्रसन्नतापूर्वक अग्निदेव की परिक्रमा की। फिर भगवान शिव की आज्ञा पाकर मुनियो सहित मैंने शिव विवाह का शेष कार्य प्रसन्नतापूर्वक कराया। फिर ब्राह्मणों की आज्ञा से भगवान शिव के सिर में सिंदूरदान किया। इस दौरान गिरिराजनंदनी उमा की शोभा अद्भुत और अवर्णनीय हो गई।
उस वैवाहिक यज्ञ के विधिपूर्वक पूर्ण हो जाने पर भगवान शिव ने मुझ लोकस्त्रष्टा ब्रह्मा को पूर्ण पात्र दान किया। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मणों को अलग-अलग सौ-सौ सुवर्ण मुद्राएं दीं। फिर मांगलिक गीत और शब्द होने लगे। इसके बाद श्रीहरि विष्णु, ब्रह्माजी, देवता औऱ ऋषि सभी गिरिराज से आज्ञा लेकर अपने-अपने डेरे में चले आए। सबसे आदरपूर्वक वर-वधू से लोकाचार का संपादन कराया और लोक कल्याणकारी दंपती को वह स्त्रियां परम दिव्य वासभवन में ले गयीं। नवदम्पति को केलिगृह में पहुंचाया और उनके गठबन्धन की गांठ खोलने आदि का कार्य सम्पन्न किया।
नूतन दंपत्ति को देखने के लिए सोलह दिव्य नारियां शीघ्रतापूर्वक वहां आईं। जिनके नाम लक्ष्मी, सरस्वती, गङ्गा, अदिति, शची, सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, पृथिवी, शतरूपा, स्वाहा, रोहिणी, संज्ञा तथा रति। इसके अलावा नागकन्या, देवकन्या और मुनिकन्याएं भी वहां आईं। भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक रत्नमय सिंहासन पर बैठे। फिर शंभू ने अपनी पत्नी के साथ मिष्टान्त्र भोजन और आचमन करके कपूर डाला।
रति ने भगवान शंकर से कहा कि भगवन् पार्वती का पाणिग्रहण करके आपने दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया है। मेरे प्राणनाथ को जो सर्वधा स्वार्थ रहित थे, आपने क्यों भस्म कर दिया। अब मेरे पति को जीवित कर दीजिए और काम संबंधी व्यापार को जगाइए। आपके इस विवाह में सभी सुखी हैं। सिर्फ मैं अपने पति के बिना दुख में डूबी हूं। देव शंकर मुझे सनाथ कर दीजिए। आपके सिवा तीनों लोगों में दूसरा कौन है, जो मेरे दुखों का नाश कर सके। मुझ पर दया कीजिए। इसलिए सर्वेश्वर! आप शीघ्र मेरे पति को जीवित कीजिये।
ऐसा कहकर रति ने गांठ में बंधा हुआ कामदेव के शरीर की भस्म को शिव को दे दिया। उनके साथ रति रोने लगी। रति का रोदन सुनकर सरस्वती आदि देवियां रोने लगीं और कहने लगीं, प्रभो आप दीनबंधु और दया के सागर हैं। आप कामदेव को जीवनदान दीजिए और रति को उत्साहित कीजिए। आपको नमस्कार है। उन सब की बात सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गए और करुणासागर ने रति पर कृपा की। भगवान शूलपाणि की दृष्टि पड़ते ही उस भस्म से कामदेव प्रकट हो गए। अपने पति को वैसे ही देखकर रति ने शंभो को प्रणाम किया। जीवित पति के साथ हाथ जोड़कर रति ने बारंबार स्तवन किया।
भगवान शिव ने कहा कि पत्नी सहित तुमने जो स्तुति की है, उससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। स्वयं प्रकट होने वाले काम। वर मांगों मैं तुमको मनोवांछित वर दूंगा। यह सुनकर कामदेव आनंद में मग्न हो गए। कामदेव ने कहा कि अगर आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो मेरे आनन्ददायक होइए प्रभो ! मैंने जो भी पूर्व में अपराध किए हैं, उसको क्षमा कीजिए और स्वजनों के प्रति परम प्रेम और अपने चरणों की भक्ति दीजिए।
यह सुनकर भगवान शिव बोले- बहुत अच्छा। इसके बाद करुणानिधि ने कहा महामते कामदेव मैं तुम पर प्रसन्न हूं और तुम अब अपने मन से भय को निकाल दो। भगवान विष्णु के पास जाओ और इस घर से बाहर ही रहो। इसके बाद कामदेव शिवजी को प्रणाम करके बाहर आ गए। विष्णु आदि देवताओं से आशीर्वाद लिया। भगवान शिव ने वामभवन में पार्वती को बाएं बिठाकर उनका मुंह मीठा कराया। इसके बाद मैना और हिमवान से आज्ञा लेकर भगवान शिव जनवासे में चले गए।
उस दौरान महान् उत्सव हुआ और वेदमंत्रों की ध्वनि होने लगी। चारों तरफ बाजे बजने लगे और जनवाले में अपने स्थान पर पहुंचकर भगवान शिव ने मुनियों को प्रणाम किया। श्रीहरि विष्णु ने भी मस्तक झुकाया और सब देवता उनकी वंदना करने लगे। चारों ओर जय-जयकार, नमस्कार और विघ्नों का नाश करने वाली शुभदायिनी वेद वेदध्वनि भी होने लगी। इसके बाद भगवान विष्णु, ब्रह्माजी, इंद्र, ऋषि और सिद्ध आदि ने भगवान शिव की स्तुति की।