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जानिए हिंदू धर्म के 16 संस्कारों के बारे में खास जानकारी

By Astro panchang | Jun 26, 2020

भारत में अलग-अलग प्रकार के धर्म और जातियां हैं सभी धर्म की अपनी मान्यता होती है, दुनिया का सबसे बड़ा और ज्यादा समय वाला धर्म हिंदू धर्म है। हिंदू धर्म की संस्कृति उसके संस्कारों पर ही आधारित है, कई ग्रंथों के अनुसार हिंदू धर्म से ही अन्य धर्मों का जन्म हुआ है कहा जाता है कि हिंदू धर्म के ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये कई संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व दिया गया है। 

भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। प्राचीन काल में हिन्दू धर्म के लोगों का प्रत्येक कार्य संस्कार से शुरू होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। आज हम आपको उन्हें 16 संस्कारों के बारे में बताने जा रहे हैं।

गर्भाधान संस्कार
हिंदू धर्म के शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के दौरान पहले क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतान की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना होता है, यह बहुत ही ज्यादा आवश्यक होता है।
 
दैवी जगत् से शिशु की मात्रा बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करे साथ ही इस लोक में अच्छी तरह से रहें। यही इस पहले संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। शादी के उपरांत की जाने वाली विभिन्न पूजा और क्रियाएं सब कुछ इस पहले संस्कार का हिस्सा हैं।

पुंसवन संस्कार
जब किसी स्त्री में गर्भ ठहर जाता है तो उसे भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास करना चाहिए हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा में भविष्य में बनने वाले माता-पिता को यह तथ्य समझाएं जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से समझदार हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल की जाती है। 

उसके लिए अनुरूप वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे महीने में विधि के अनुसार पुंसवन संस्कार पूरा कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है। वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता ही है, माता-पिता और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि होने वाली माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ किस तरह से विकसित करें।

सीमन्तोन्नयन
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का मतलब है सौभाग्य संपन्न होना। यह संस्कार गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा भी करता है यह इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के द्वारा गर्भधारण की हुई स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में किया जाता है।

जातकर्म
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पहले इस संस्कार को करते हैं, इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माँ बच्चे को स्तनपान कराती हैं।

नामकरण संस्कार
वैसे तो आज के समय नामकरण संस्कार का अर्थ केवल नाम रखने से है परंतु नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। वैसे तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का चलन है परन्तु इस समय स्थितियों में और व्यवहार में यह नहीं दिखता। अपने तरीके में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ मिला लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में धरती पर उतरी जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँचाने का सत्य प्रयास किया जाता है। 

जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो अशुद्ध हों, उनसे छुटकारा दिलवाना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना जरूरी होता है। नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी आदतें, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुसार वातावरण बनाना चाहिए। शिशु कन्या है या पुत्र, इसका भेदभाव नहीं होने देना चाहिए।

भारतीय संस्कृति के अनुसार कहीं भी इस प्रकार का भेदभाव नहीं है। शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है। 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता।' इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके अंदर के बेकार या व्यर्थ संस्कारों का खात्मा करके अच्छाई की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए।
 
यह संस्कार कराते समय शिशु के घर वालों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है। भाव-भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है। आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है।

निष्क्रमण् 
निष्क्रमण का मतलब होता है बाहर निकलना। इस संस्कार में छोटे बच्चे को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाई जाती है। भगवान् सूर्यदेव के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इस संस्कार का उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन के साथ साथ शिशु के यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। 

जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को किया जाता है। तीन महीने तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के उसके स्वास्थ्य के लिए सही नही होता। इसलिए शुरू के तीन महीने तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का मतलब यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों को जानें।

अन्नप्राशन संस्कार
बालक को जब दूध और अन्न देना शुरु किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है। इसी क्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक को दाँत निकल आने पर उसे पीने के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है। मनुष्यों ज्यादातर समय साधन और खाने की व्यवस्था में जाता है। भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है।

मुंडन संस्कार 
इस संस्कार में बच्चे के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं, लौकिक रीति यह हिन्दू धर्म में सबसे प्रचलित संस्कार है कि मुण्डन, बालक की एक वर्ष की होने तक कराया जाता है या फिर दो वर्ष पूरा होने पर कराया जाता है।
 
यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है।
 
जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं। हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए ही यह संस्कार किया जाता है।

विद्यारंभ संस्कार 
जब बच्चे की उम्र शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाती है, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही माता-पिता शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है।

कर्णवेध संस्कार
कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बच्चे की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का महत्वपूर्ण उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सुंदरता बोध का कराते हैं।

उपनयन संस्कार
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। 
 
वेदारम्भ संस्कार 
वेद का अर्थ होता है, ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था।
 
यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। 

केशान्त संस्कार 
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।

समावर्तन संस्कार 
इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है।
 
यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर कपड़े व गहने धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
 
विवाह संस्कार 
हिन्दू धर्म में सद्गृहस्थ की परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं है, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है।
 
श्राद्ध संस्कार
हिंदूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है। हिन्दूधर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, यदि कोई कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते हैं।
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