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Sawan Somvar: मनचाही संतान की प्राप्ति का अचूक उपाय, सावन सोमवार पर करें इन प्राचीन स्त्रोतों का पाठ

By Astro panchang | Nov 28, 2025

हिंदू धर्म में सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित होता है। इस दिन शिवभक्त भगवान शिव की विधिविधान से पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं मनचाहा वरदान पाने के लिए सोमवार का व्रत किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि सावन सोमवार का व्रत करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। सावन महीने के हर सोमवार को भगवान शिव और मां पार्वती की पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं संतान प्राप्ति से लेकर मनचाहा वरदान पाने के लिए व्रत भी करते हैं। सावन सोमवार के दिन शिव-शक्ति की पूजा करने से निसंतान दंपति को संतान सुख की प्राप्ति होती है।

संतान प्राप्ति की इच्छा से दंपति सावन सोमवार के दिन विधिविधान और भक्ति-भाव से भगवान शिव और मां पार्वती की पूजा-अर्चना करते हैं। ऐसे में अगर आप भी वंश समेत सुख-सौभाग्य में वृद्धि करना चाहते हैं, तो सावन सोमवार के दिन पूजा के समय संतान प्राप्ति गणेश और अभिलाषाष्टक स्त्रोत का पाठ जरूर करना चाहिए।

संतान प्राप्ति गणेश स्तोत्र

ॐ नमोस्तु गणनाथाय सिद्धिबुद्धि प्रदाय च |
सर्वप्रदाय देवाय पुत्रवृद्धिप्रदाय च | |

गुरुदराय गुरवे गोप्त्रे गुह्यसिताय च |
गोप्याय गोपितशेषभुवनाय चिदात्मने ||

विश्वमूलाय भव्याय विश्वसृष्टिकराय ते |
नमो नमस्ते सत्याय सत्यपूर्णाय शुण्डिने ||

एकदंताय शुद्धाय सुमुखाय नमो नमः |
प्रपन्नजनपालय प्रणतार्ति विनाशिने ||

शरणं भव देवेश सन्ततिं सुद्रढां कुरु |
भविष्यन्ति च ये पुत्रा मत्कुले गणनायक ||

ते सर्वे तव पूजार्थे निरताः स्युर्वरो मतः |
पुत्रप्रदमिदं स्तोत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकं ||

अभिलाषाष्टक स्तोत्र

एकं ब्रह्मवाद्वितीयं समस्तं

सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित् ।

एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे

तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् ॥

एकः कर्ता त्वं हि विश्वस्य शम्भो

नाना रूपेष्वेकरूपोऽस्यरूपः।

यद्वत्प्रत्यस्वर्क एकोऽप्यनेक-

स्तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं प्रपद्ये ॥

रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं

नैरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।

यद्वत्तद्वद् विश्वगेष प्रपञ्चो

यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ॥

तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ

तापो भानौ शीतभानौ प्रसादः।

पुष्पे गन्धो दुग्धमध्ये च सर्पि

र्यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ॥

शब्दं गृह्णास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्रे

रघ्राणस्त्वं व्यंघ्रिरायासि दूरात् ।

व्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः

कस्त्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ॥

नो वेदस्त्वामीश साक्षाद्धि वेद

नो वा विष्णु! विधाताखिलस्य ।

नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्च देवा

भक्तो वेद त्वामतस्त्वां प्रपद्ये ॥

नो ते गोत्रं नेश जन्मापि नाख्या

नो वा रूपं नैव शीलं न देशः।

इत्थंभूतोऽपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्याः

सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे त्वाम् ॥

त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे

त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः।

त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च बाल

स्तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां नतोऽस्मि ॥
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